नियम

अष्टांग योग का दूसरा चरण  : नियम 

महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का दूसरा चरण नियम है | पहला चरण यम जहा मन को शांति देता है , वही दूसरा चरण नियम हमें पवित्र बताता है | नियम के भी पांच प्रकार होते हैं : शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय (मोक्षशास्त्र का अनुशलीन या प्रणव का जप) तथा ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना)। आसन से तात्पर्य है स्थिर और सुख देनेवाले बैठने के प्रकार (स्थिर सुखमासनम्‌) जो देहस्थिरता की साधना है।


 नियम : जीवन में पवित्रता 

योग दर्शन में शौच,संतोष,तप,स्वाध्याय,व ईश्वर प्रणिधान को नियम कहते है. यह पांच नैतिक नियम है, जो हमारे अंदर की कलुस्ता (गंदगी) को दूर करते हैं, और हमें योग मार्गी जीवन जीने के लिए एक स्वच्छ और बेहतर शरीर प्राप्त करने में मददगार साबित होते हैं क्योंकि जब तक हम शारीरिक रूप से स्वस्थ और स्वच्छ नहीं रहेंगे तब तक हम योग मार्ग पर सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं .


नियम पांच प्रकार के होते है -

शौच :-

शौच का अर्थ पवित्रता या सुचिता है.पवित्रता दो तरह की होती है – बाह्य व आभ्यंतर . मिट्टी या जल से शरीर को स्वच्छ करना बाह्य शौच कहलाता है. जबकी अहंता, इर्ष्या , काम – क्रोधादि का त्याग आभ्यंतर शौच कहलाता है. भीतर बाहर की पवित्रता से सौमनस्य आता है, जिससे एकाग्रता बढती है. और आत्म साक्षातकार की योग्यता भी साधक में आ जाती है.

संतोष :-

जो कुछ भी उपलब्ध है, उससे अधिक की कामना न करना ही संतोष है. संतोष सबसे बड़ा धन है. इसके आगे संसार के सभी धन तुच्छ है दुसरे अर्थो में प्रसन्नचित्त रहना ही संतोष है.

तप :-

भूख-प्यास, सर्दी गर्मी,द्वन्द को सहन करना , व्रत करना, आदि ये सभी तप है.तप करने का लाभ यह होता है की साधक में सूक्ष्मातिसूक्ष्म व दूर की वस्तुओ को देख लेने की क्षमता का विकास होता है. साथ ही श्रवण शक्ति भी बढती है.

स्वाध्याय :-

वेद- पुराण,सद्ग्रंथो का अध्ययन भगवान् के नाम का उच्चारण करना, मंत्र का जाप करना आदि स्वाध्याय कहलाता है.

ईश्वर प्रणिधान :-

मन, वाणी, शरीर, से ईश्वर के प्रति समर्पण भाव ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता है. इसका लाभ समाधि के रूप में प्राप्त होता है.

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